कृष्णकृपा प्राप्ति के लिए वरदान है यह श्रीभीष्म-कृत् भगवत् स्तुति

कृष्णकृपा प्राप्ति के लिए वरदान है यह श्रीभीष्म-कृत् भगवत् स्तुति

श्रीमद्भागतमहापुराण प्रथम स्कंध के नवम् अध्याय में  श्रीभीष्म जी के द्वारा भगवत् स्तुति की गयी है। यह स्तुति सद्चिदानंद स्वरुप  भगवान् श्रीकृष्ण को समर्पित है | इस स्तुति में श्री कृष्ण के सुंदर स्वरूप का वर्णन किया गया है | जो साधक इस स्तुति का नित्य भाव पूर्वक पाठ करता है, उस साधक को शीघ्र ही भगवान श्रीकृष्ण की कृपा प्राप्त होती है एवं अंततः श्रीकृष्ण अपने भक्त को स्वयं की शरणागति प्रदान करते हैं | 

स्तुति :- 

                     भीष्म उवाच 

इति मतिरुपकल्पिता वितृष्णा भगवति सात्वतपुङ्गवे विभूम्नि।
स्वसुखमुपगते क्वचिद्विहर्तुं प्रकृतिमुपेयुषि यद्भवप्रवाहः।।१।।

भीष्म जी बोले - जो निज आनन्द में मग्न है, और कभी विहार (लीला) करने की इच्छा से प्रकृति को स्वीकार करता है तब उससे संसार का प्रवाह चलता है ऐसे भूमास्वरूप, यदुश्रेष्ठ भगवान् कृष्ण में मैंने अपनी तृष्णारहित बुद्धि समर्पित कर दी है।

त्रिभुवनकमनं तमालवर्णं रविकरगौरवराम्बरं दधाने।
वपुरलककुलावृताननाब्जं विजयसखे रतिरस्तु मेऽनवद्या।।२।।

        
त्रिभुवनसुन्दर तमालवर्ण सूर्यकिरणों के समान उज्ज्वल और पवित्र वस्त्र धारण करने वाले तथा जिनका मुखकमल अलकावली से आवृत है, उन अर्जुन-सखा में मेरी निष्काम प्रीति हो ।

युधि तुरगरजोविधूम्रविष्वक्- कचलुलितश्रमवार्यलङ्कृतास्ये।
मम निशितशरैर्विभिद्यमान- त्वचि विलसत्कवचेऽस्तु कृष्ण आत्मा।।३।।

युद्ध में घोड़ों की टाप से उड़ी हुई रज से धूसरित तथा चारों ओर छिटकी हुई अलकोंवाले, परिश्रमजन्य पसीने की बूँदों से सुशोभित मुखवाले और मेरे तीक्ष्ण बाणों से विदीर्ण हुई त्वचा वाले, सुन्दर कवचधारी कृष्ण में मेरी आत्मा प्रवेश करे।

सपदि सखिवचो निशम्य मध्ये निजपरयोर्बलयो रथं निवेश्य।
स्थितवति परसैनिकायुरक्ष्णा हृतवति पार्थसखे रतिर्ममास्तु।।४।।

सखा के वचनों को सुनकर शीघ्र ही अपनी और विपक्षियों की सेनाओं के बीच में रथ को खड़ा करके अपने भृकुटि-विलास से विपक्षी सैनिकों की आयु को हरने वाले पार्थ-सखा में मेरी प्रीति हो।

व्यवहितपृतनामुखं निरीक्ष्य स्वजनवधाद्विमुखस्य दोषबुद्धया।
कुमतिमहरदात्मविद्यया य-श्चरणरतिः परमस्य तस्य मेऽस्तु।।५।।

दूर खड़ी सेना के मुख का निरीक्षण करके स्वजन-वध में दोषबुद्धि से निवृत्त हुए अर्जुन की कुमति को जिसने आत्मविद्या (गीता-ज्ञान) द्वारा हर लिया था, उस परमपुरुष (कृष्ण) के चरणों में मेरी प्रीति हो।

स्वनिगममपहाय मत्प्रतिज्ञा- मृतमधिकर्तुमवप्लुतो रथस्थः। 
धृतरथचरणोऽभ्ययाच्चलद्गु- र्हरिरिव हन्तुमिभं गतोत्तरीयः।।६।।

मेरी प्रतिज्ञा को सत्य करने के लिये, अपनी प्रतिज्ञा छोड़कर रथ से उतर पड़े और सिंह जैसे हाथी को मारने दौड़ता है उसी तरह चक्र को लेकर पृथ्वी कँपाते हुए कृष्ण (मेरी ओर) दौड़े, उस समय शीघ्रता के कारण उनका दुपट्टा (पृथ्वी को सान्त्वना देने के लिये) गिर पड़ा था।

शितविशिखहतो विशीर्णदंशः क्षतजपरिप्लुत आततायिनो मे।
प्रसभमभिससार मद्वधार्थं स भवतु मे भगवान् गतिर्मुकुन्दः।।७।।

मुझ आततायी के तीक्ष्ण बाणों से विदीर्ण होकर, फटे हुए कवच वाले, घाव और रुधिर(रक्त)  से सने हुए, जो भगवान् मुकुन्द मुझे हठ पूर्वक मारने को दौड़े, वे मेरी गति हों।

विजयरथकुटुम्ब आत्ततोत्रे धृतहयरश्मिनि तच्छ्रियेक्षणीये।
भगवति रतिरस्तु मे मुमूर्षो- र्यमिह निरीक्ष्य हता गताः सरूपम्।८।।

अर्जुनके रथमें- चाबुक लेकर और घोड़ों की लगाम पकड़कर बैठे हुए (अहा!) ऐसी शोभा से दर्शनीय भगवान् में मुझ मरणाकांक्षी की प्रीति हो; जिनका दर्शन करके इस युद्ध में मरे हुए वीर भगवत्-स्वरूप को प्राप्त हो गये हैं।

ललितगतिविलासवल्गुहास- प्रणयनिरीक्षणकल्पितोरुमानाः।
कृतमनुकृतवत्य उन्मदान्धाः प्रकृतिमगन्किल यस्य गोपवध्वः।।९।।

ललित गति, विलास, मनोहर हास्य और प्रेमपूर्ण निरीक्षण के समय बहुत मान धारण करने वाली तथा (कृष्णके अन्तर्धान हो जानेपर) उन्मत्त होकर भगवत्- चरित्रों का अनुकरण करने वाली गोपवधुएँ जिनके स्वरूप को निश्चय ही प्राप्त हो गयीं।

मुनिगणनृपवर्यस‌ङ्कलेऽन्तः-सदसि युधिष्ठिरराजसूय एषाम्।
अर्हणमुपपेद ईक्षणीयो मम दृशिगोचर एष आविरात्मा।।१०।।

युधिष्ठिरके राजसूययज्ञ में, मुनिगण और नृपतियों के समक्ष जिनकी अग्रपूजा हुई, अहो! ऐसे दर्शनीय भगवान् ही ये मेरी दृष्टिके सामने प्रकट हुए हैं।

तमिममहमजं शरीरभाजां हृदि हृदि धिष्ठितमात्मकल्पितानाम्।
प्रतिदृशमिव नैकधार्कमेकं समधिगतोऽस्मि विधूतभेदमोहः।।११।।

मैं भेद और मोह से रहित होकर अपने ही रचे हुए प्रत्येक शरीरधारी के हृदय में स्थित सूर्य की तरह एक होते हुए भी नाना दृष्टि से अनेक रूप दीखने वाले और जन्मरहित इस परमात्मा (कृष्ण) की शरण में जाता हूँ।

“श्रीमद्भागवत महापुराण के नवम अध्याय के अन्तर्गत श्रीभीष्म जी के द्वारा की गयी भगवत्स्तुति: सम्पूर्ण हुई” |  

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