नवरात्रि के प्रथम दिन करें माता शैलपुत्री की उपासना

नवरात्रि के प्रथम दिन करें माता शैलपुत्री की उपासना

हमारी चेतना में सत, रज, तम- तीनों प्रकार के गुण व्याप्त होते हैं। प्रकृति के साथ इसी चेतना के उत्सव को नवरात्रि कहते हैं। इन 9 दिनों में प्रथम तीन-दिन तमोगुणी प्रकृति की, द्वितीय तीन-दिन रजोगुणी प्रकृति की, तथा अन्तिम तीन दिनों में सतोगुणी प्रकृति की आराधना का विशिष्ट महत्व होता है ।

माँ की आराधना :- 

महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती इन तीन रूपों में जगद्जननी माता दुर्गा की आराधना की जाती है| “या देवी सर्वभुतेषु चेतनेत्यभिधीयते” सभी जीव जंतुओं में चेतना के रूप में ही माँ (देवी) तुम स्थित हो।

नवरात्रि पर्व शक्ति के अलग- अलग रूपों की आराधना और उपासना का त्यौहार है। जिस प्रकार कोई शिशु अपनी माँ के गर्भ में 9 महीने रहता है, वैसे ही हम अपने आप में परा प्रकृति में रहकर ध्यान में संलग्न होने के लिए इन 9 दिन पर्यन्त भगवती की उपासना करते हैं जिसका बहुत का महत्व है। वहाँ से फिर बाहर निकलते है, तो सृजनात्मकता का प्रादुर्भाव जीवन में आने लगता है।
माँ दुर्गा अपने प्रथम स्वरूप में शैलपुत्री के नाम से जानी जाती हैं। पर्वतराज हिमालय के घर पुत्री‌ के रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका यह 'शैलपुत्री' नाम पड़ा था।  माता वृषभ पर स्थित हैं। इन माताजी के दाहिने हाथ में त्रिशूल और बायें हाथ में कमल पुष्प सुशोभित है। यही नव दुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं।

माता के प्रथम स्वरूप की पूजा इन मंत्रों द्वारा करनी चाहिए।

1.    ॐ ऐं ह्री क्लीं शैलपुत्र्यै नम:।
2.    वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
       वृषारूढां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम् ।।

अर्थात्- मैं मनोवांछित लाभ के लिये अपने मस्तक पर अर्धचंद्र धारण करने वाली, वृष पर सवार रहने वाली, शूलधारिणी और यशस्विनी मां शैलपुत्री की वंदना करता हूं।
माता शैलपुत्री की उपासना करने से उपासक को मनोवाञ्छित फल‌ की प्राप्ति होती है। ज्योतिष शास्त्र में माना जाता है कि देवी शैलपुत्री चंद्रमा ग्रह को नियंत्रित करती हैं । इन शक्ति मंत्रों का जप करने से चंद्रमा के न्यून प्रभावों से मुक्ति मिलती है,एवं शारीरिक और मानसिक स्वस्थ में वृद्धि होती है | 

माता का शैलपुत्री नाम क्यों पड़ा ?

माता शैलपुत्री अपने पूर्वजन्म में प्रजापति दक्ष‌ की कन्या के रूप में उत्पन्न हुई थीं। तब इनका नाम 'सती' था। इनका विवाह भगवान् शङ्कर से हुआ । एक बार प्रजापति दक्ष ने एक बहुत बड़ा यज्ञ किया। इसमें उन्होंने सभी देवताओं को अपना अपना यज्ञ-भाग प्राप्त करने के लिये आमन्त्रित किया। किन्तु भगवान् शङ्कर को उन्होंने इस यज्ञ में आमन्त्रित नहीं किया। सती ने जब सुना कि हमारे पिता एक अत्यन्त विशाल यज्ञ का आयोजन कर रहे हैं, तब वहाँ जाने के लिये उनका मन विकल हो उठा। अपनी यह इच्छा उन्होंने भगवान् शङ्कर को बतायी। सारी बातों पर विचार मन्थन करने के पश्चात् भगवान् शिव बोले- "प्रजापति दक्ष किसी कारणवश हमसे रुष्ट हैं। अपने यज्ञ में उन्होंने सारे देवताओं को निमन्त्रित किया है। उनके यज्ञ-भाग भी उन्हें समर्पित किये हैं, किन्तु हमें जान-बूझकर नहीं बुलाया है। कोई सन्देश भी हमें प्रेषित नहीं किया है। ऐसी स्थिति में देवी आपका वहाँ जाना किसी भी प्रकार से उचित नहीं होगा। शङ्करजी के इस उपदेश से सती को प्रबोध नहीं हुआ। पिता का यज्ञ देखने, वहाँ जाकर माता और बहनोंसे मिलने की उनकी व्याकुलता किसी प्रकार भी कम न हो सकी। उनका प्रबल आग्रह देखकर भगवान् शङ्करजी ने उन्हें वहाँ जाने की अनुमति प्रदान कर दी।

सती ने पिता के घर आकर देखा कि कोई भी उनके साथ आदर और प्रेम के साथ बात-चीत नहीं कर रहा है। सारे लोग मुँह फेरे हुए हैं। केवल उनकी माता ने स्नेह से उन्हें गले लगाया। बहनों की बातों में व्यंग्य और उपहास के भाव भरे हुए थे। परिजनों के इस व्यवहार से उनके मन को बहुत क्षति पहुँची । उन्होंने यह भी देखा कि वहाँ चतुर्दिक् भगवान् शङ्करजी के प्रति तिरस्कार का भाव भरा हुआ है। दक्ष ने उनके प्रति कुछ अपमानजनक वचन कहे। यह सब देखकर सती का हृदय क्षोभ, ग्लानि और क्रोध से सन्तप्त हो उठा। उन्होंने विचार किया की भगवान् शङ्कर की बात न मानकर यहाँ आकर मुझसे बहुत बड़ी भूल हुई  है। वह अपने पति भगवान् शङ्कर के इस अपमान को सह न सकीं। उन्होंने अपने उस रूप को तत्क्षण वहीं योगाग्नि द्वारा जलाकर भस्म कर दिया। वज्रपात के समान इस दारुण-दुःखद घटना को सुनकर शङ्करजी ने क्रुद्ध हो, अपने गणों को भेजकर दक्ष के उस यज्ञका पूर्णतः विध्वंस करा दिया।

माता सती ने योगाग्नि द्वारा अपने शरीर को भस्मकर अगला जन्म शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में लिया। और इस जन्म में वह 'शैलपुत्री' नाम से विख्यात हुईं। पार्वती, हैमवती माता सती के ही अन्यतम नाम हैं। 

उपनिषद्‌ की एक कथा के अनुसार इन्हीं दक्ष ने हैमवती स्वरूप से देवताओं का गर्व-भंजन किया था। 'शैलपुत्री' देवी का विवाह भी शङ्करजी से ही हुआ। पूर्वजन्म की भाँति इस जन्म में भी वह शिवजी की अर्द्धांगिनी बनीं। नव दुर्गाओं में माता दुर्गा के प्रथम स्वरुप शैलपुत्री का बहुत महत्त्व है एवं अनन्त शक्तियों से ये परिपूर्ण हैं। नवरात्र-पूजनमें प्रथम दिवस इन्हीं की पूजा और उपासना की जाती है। इस प्रथम दिन की उपासना में साधक अपने मन को 'मूलाधार' चक्र में स्थित करते हैं। यहीं से उनकी योगसाधना का प्रारम्भ होता है।
 •   भोग=घी।
 •   फल=अनार 
 •   पुष्प=श्वेत कमल पुष्प ।

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