जरा,दुःख , व्याधि से निवृत्ति और शिव सायुज्य प्राप्ति हेतु करें इस स्तोत्र का पाठ

जरा,दुःख , व्याधि से निवृत्ति और शिव सायुज्य प्राप्ति हेतु करें इस स्तोत्र का पाठ

श्री शंकराचार्य जी द्वारा विरचित यह स्तोत्र है । इस स्तोत्र में कुल नौ श्लोक हैं जिनमें से आठ श्लोकों में भगवान् शिव की स्तुति और अन्तिम एक श्लोक में इसका माहात्म्य बताया गया है । आठ श्लोक होने के कारण इसे अष्टक कहा गया है । भगवान् शिव मनुष्य के जरा,व्याधि,कष्ट आदि से मुक्ति प्रदान करने वाले हैं । जो मनुष्य इस शिवाष्टक का प्रातः या सांय पाठ करता है उसे शिवलोक की प्राप्ति होती है ।

तस्मै नमः परमकारणकारणाय दीप्तोज्ज्वलज्ज्वलितपिङ्गललोचनाय।
नागेन्द्रहारकृतकुण्डलभूषणाय ब्रह्मेन्द्रविष्णुवरदाय नमः शिवाय ।।१।।

जो कारण के भी परम कारण हैं, (अग्निशिखा के समान) अति देदीप्यमान उज्ज्वल और पिंगल नेत्रों वाले हैं, सर्पराजों के हार-कुण्डलादि से भूषित हैं तथा ब्रह्मा, विष्णु और इन्द्रादि को भी वर देने वाले हैं, उन श्रीशंकर को नमस्कार करता हूँ।

श्रीमत्प्रसन्नशशिपन्नगभूषणाय शैलेन्द्रजावदनचुम्बितलोचनाय।
कैलासमन्दर महेन्द्रनिकेतनाय लोकत्रयार्तिहरणाय नमः शिवाय।।२।।

शोभायमान एवं निर्मल चन्द्रकला तथा सर्प ही जिनके भूषण हैं, गिरिराजकुमारी अपने मुख से जिनके लोचनों का चुम्बन करती हैं, कैलास और महेन्द्रगिरि जिनके निवास स्थान हैं तथा जो त्रिलोकी के दुःख को दूर करने वाले हैं, उन श्रीशंकर को नमस्कार करता हूँ ।

पद्मावदातमणिकुण्डलगोवृषाय कृष्णागरुप्रचुरचन्दनचर्चिताय ।
भस्मानुषक्तविकचोत्पलमल्लिकाय नीलाब्जकण्ठसदृशाय नमः शिवाय।।३।।

जो स्वच्छ पद्मरागमणि के कुण्डलों से किरणों की वर्षा करने वाले, अगरु और बहुत-से चन्दन से चर्चित तथा भस्म, प्रफुल्लित कमल और जूही से सुशोभित हैं, ऐसे नीलकमल सदृश कण्ठ वाले शिव को नमस्कार है।

लम्बत्सपिङ्गलजटामुकुटोत्कटाय दंष्ट्राकरालविकटोत्कटभैरवाय।
व्याघ्राजिनाम्बरधराय मनोहराय त्रैलोक्यनाथनमिताय नमः शिवाय।।४।।

लटकती हुई पिंगलवर्ण जटाओं के सहित मुकुट धारण करने से जो उत्कट जान पड़ते हैं, तीक्ष्ण दाढ़ों के कारण जो अतिविकट और भयानक प्रतीत होते हैं, व्याघ्रचर्म धारण किये हुए हैं, अतिमनोहर हैं तथा तीनों लोकों के अधीश्वर भी जिनके चरणों में नमन करते  हैं, उन श्रीशंकर को प्रणाम है।

दक्षप्रजापतिमहामखनाशनाय क्षिप्रं महात्रिपुरदानवघातनाय।
ब्रह्मोर्जितोर्ध्वगकरोटिनिकृन्तनाय योगाय योगनमिताय नमः शिवाय।।५।।

दक्षप्रजापति के महायज्ञ को ध्वंस करने वाले, महान् त्रिपुरासुर को शीघ्र मार डालने वाले, दर्पयुक्त ब्रह्मा के ऊर्ध्वमुख पंचम सिर का छेदन करने वाले, योगस्वरूप, योग से नमस्कृत शिव को मैं नमस्कार करता हूं। 

संसारसृष्टिघटनापरिवर्तनाय रक्षः पिशाचगणसिद्धसमाकुलाय।
सिद्धोरगग्रहगणेन्द्रनिषेविताय शार्दूलचर्मवसनाय नमः शिवाय।।६।।

जो कल्प-कल्प में संसार रचना का परिवर्तन करने वाले हैं; राक्षस, पिशाच और सिद्धगणों से घिरे रहते हैं; सिद्ध, सर्प, ग्रहगण तथा इन्द्रादि से सेवित हैं तथा जो व्याघ्रचर्म धारण किये हुए हैं, उन श्रीशंकर को नमस्कार करता हूँ।

भस्माङ्गरागकृतरूपमनोहराय सौम्यावदातवनमाश्रितमाश्रिताय।
गौरीकटाक्षनयनार्धनिरीक्षणाय गोक्षीरधारधवलाय नमः शिवाय।।७।।

भस्मरूपी अंगराग से जिन्होंने अपने रूप को अत्यन्त मनोहर बनाया है, जो अतिशान्त और सुन्दर वन का आश्रय करने वालों के आश्रित हैं, श्रीपार्वतीजी के कटाक्ष की ओर जो बाँकी चितवन से निहार रहे हैं और गोदुग्ध की धारा के तुल्य जिनका श्वेत वर्ण है, उन श्रीशंकर को मैं नमस्कार करता हूँ।

आदित्यसोमवरुणानिलसेविताय यज्ञाग्निहोत्रवरधूमनिकेतनाय।
ऋक्सामवेदमुनिभिः स्तुतिसंयुताय गोपाय गोपनमिताय नमः शिवाय।।८।।

सूर्य, चन्द्र, वरुण और पवन से जो सेवित हैं, यज्ञ और अग्निहोत्र के धूम में जिनका निवास है, ऋक्सामादि वेद और मुनिजन जिनकी स्तुति करते हैं, उन नन्दीश्वर पूजित गौओं का पालन करने वाले महादेवजी को नमस्कार करता हूँ।

शिवाष्टकमिदं पुण्यं यः पठेच्छिवसन्निधौ।
शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते।।९।।

जो इस पवित्र शिवाष्टक को श्रीमहादेवजी के समीप पढ़ता है, वह शिवलोक को प्राप्त होता है और शंकरजी के साथ आनन्द प्राप्त करता है ।

“इस प्रकार श्री मत् शंकराचार्य जी द्वारा विरचित “शिवाष्टकम्” सम्पूर्ण हुआ ।

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