कर्णवेध संस्कार की महत्ता तथा सनातन धर्म में उसकी उपादेयता ।

कर्णवेध संस्कार की महत्ता तथा सनातन धर्म में उसकी उपादेयता ।

जिस संस्कार में विधि-विधान पूर्वक बालक या बालिका के कर्ण का छेदन किया जाता है उस संस्कार विशेष को “कर्णवेध संस्कार” कहा जाता है । इस संस्कार में सर्वप्रथम कर्ण को वेधकर उसमें पिचुवर्ति (कपड़े की नरम बत्ती) बनाकर पहनायी जाती है तथा जब कर्णछिद्र पुष्ट हो जाता है उसके पश्चात् कर्ण से बत्ती निकालकर उसके स्थान पर स्वर्ण का कुण्डल पहनाया जाता है । 

शास्त्रों के अनुसार यदि शिशु का जन्म पुत्र के रूप में होता है तो उसका कर्णवेध संस्कार उपनयन संस्कार से पूर्व किया जाता है । यह भी मान्यता है कि जिस शिशु का कर्णवेध संस्कार नहीं किया जाता है उस शिशु को अपने प्रियजनों के अंतिम संस्कार में शामिल होने का अधिकार प्राप्त नहीं होता है । पूर्व में यह संस्कार बालक और बालिका दोनों का ही किया जाता था परन्तु परिवर्तित होते हुए समय के अनुसार अब यह संस्कार केवल कन्याओं का ही किया जाता है ।
 
वर्तमान समय में इस संस्कार की उपयोगिता बालिकाओं तक ही सीमित रह गयी है परन्तु यदा-कदा हमें यह भी देखने को मिलता है की परिवार में इस संस्कार का ज्ञान होने के कारण अथवा फैशन के कारण लड़कों का भी यह संस्कार करा दिया जाता है । शास्त्रोक्त परम्परा में तो बालक हो या बालिका दोनों का ही “कर्णवेध संस्कार” कराने का विधान है । 

“कृतचूडे च बाले च कर्णवेधो विधीयते” अर्थात् जिस शिशु का चूड़ाकर्म संस्कार हो गया हो उसी शिशु का “कर्णवेध संस्कार” करना चाहिए । लेकिन समयाभाव के कारण कुछ सामाजिक जन कर्णवेध संस्कार को ही सम्पादित करते हैं । 

कर्णवेध संस्कार का महत्व :- 

सनातन धर्म में “कर्णवेध संस्कार” की अत्यधिक महत्ता है । इस संस्कार में दोनों कानों में वेध (छिद्र) करके उसकी नस को स्वस्थ रखने के लिए स्वर्ण (सोने) के कुण्डल धारण कराये जाते हैं । ऐसा करने से शिशु की शारीरिक रक्षा होती है ।

कर्णव्यधे कृतो बालो न ग्रहैरभिभूयते ।
भूष्यतेऽस्य मुखं तस्मात् कार्यस्तत् कर्णयोर्व्यधः ॥  “कुमारतन्त्र (चक्रपाणि)

   
अर्थात् वंही शास्त्रोक्त दृष्टि से ‘कर्णवेध संस्कार” इसलिए भी किया जाता है क्योंकि यह बालरिष्ट (छोटे कष्ट ) उत्पन्न करने वाले बाल ग्रहों से बालक की रक्षा करता है तथा कुण्डल धारण करने से मुख की शोभा में वृद्धि होती है ।

श्रवण शक्ति के विकास के लिये भी किया जाता है । कर्णवेध संस्कार को करने से शिशु के जीवन में आने वाली नकारात्मकतायें दूर होती हैं तथा शिशु पूर्णतया सकारात्मकता से ओत-प्रोत होता है । प्रभु श्रीराम और श्रीकृष्ण का भी कर्णवेध संस्कार विधि-विधान पूर्वक संपन्न किया गया था । जिसके फलस्वरूप उन्होंने अत्यन्त ख्याति और कीर्ति प्राप्त की । 

कर्णवेध संस्कार को कराने के लिए शुभ मूहूर्त की जानकारी हेतु विद्वान् ज्योतिषी से परामर्श करें या फिर कर्णवेध संस्कार के लिए किन्हीं वैदिक पंडितजी से परामर्श करें । 

कर्णवेध संस्कार कब किया जाता है?

कर्णवेध संस्कार विभिन्न समय पर और उपनयन संस्कार से पूर्व किया जाता है । इसे उपनयन संस्कार से पूर्व करने का कारण यह है कि बच्चे की मेधा शक्ति में गुरुकुलीय शिक्षा प्राप्त करने से पूर्व ही वृद्धि हो जाए और वह शिशु एकाग्रचित्त होकर ज्ञान का अर्जन करे । 

यह संस्कार शिशु के जन्म से दसवें,बारहवें या सोलहवें दिन किया जा सकता है । इसे छठे सातवें और आठवें माह में भी कर सकते हैं । यदि किसी कारणवश कर्णवेध संस्कार शिशु के जन्म के प्रथम वर्ष तक नहीं किया गया हो तो इसे बालक के जन्म के तीसरे, पांचवें या सातवें वर्ष में करना चाहिए । 

नोट :-

  • बालक का पहले दाहिना कर्ण छेदना चाहिए ।
  • कन्या का पहले बायाँ कर्ण छेदना चाहिए ।

कर्णवेधन संस्कार की उचित विधि :- 

  • कर्णवेध संस्कार के लिए शुभ मुहूर्त निकलवाएं ।  
  • फिर शुभ तिथि के दिन बालक के पिता को प्रातः शीघ्र उठकर स्नान और नित्य कर्म करके, पूजा स्थल के आसन पर पूर्व की तरफ मुंह करके बैठना चाहिए ।  
  • इसके पश्चात् माता बालक को लेकर पिता के दाहिनी तरफ बैठे ।  
  • शिशु को स्नान कराकर और उसे नूतन वस्त्र धारण कराकर ही बैठायें ।  
  • पूजा में प्रयोग होने वाली आवश्यक सामग्री को एक स्थान पर एकत्रित करके  रखें ।  
  • तत्पश्चात् धूप-दीप प्रज्वलित करें और कर्णवेध संस्कार करने का संकल्प लें ।  
  • पूजा प्रारम्भ करने से पूर्व (पहले) सभी देवी-देवताओं तथा अपने इष्ट देवताओं का ध्यान-आवाहन अवश्य करें ।  
  • अब पुष्प, अक्षत इत्यादि अर्पित करें ।  
  • इस कर्म को करते हुए बालक के हाथ में गुड़, मोदक या फिर मीठा द्रव्य देना चाहिए । ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि शिशु को किसी प्रकार की कोई  पीड़ा न हो ।  
  • इसके बाद मांगलिक डोरे से युक्त सोने, या चांदी की सुई से बालक के कर्ण में छिद्र करें ।  
  • बालक का पहले दायां और फिर बायां कान वेधे परन्तु कन्या का पहले बायां कान और उसके बाद दायां कान वेधे ।  

कर्णवेध संस्कार के लाभ :

  • कर्णछेदन के कारण शिशु के श्रवण (सुनने) की क्षमता और सीखने की क्षमता में वृद्धि होती है । 
  • कर्ण के निचले हिस्से का पॉइंट मस्तिष्क के साथ जुड़ा होता है इसलिए कर्ण छेदन से बालक की बुद्धि में विकास होता है और मस्तिष्क में रक्त संचार उचित प्रकार से होता है । 
  • कर्ण छेदन के पश्चात् जब शिशु स्वर्ण कुण्डल धारण करता है तो उसके प्रभाव से शिशु के शरीर पर तेजस्वता आती है तथा उसकी सुंदरता भी बढ़ जाती है ।  
  • इस संस्कार को करने से लकवा, हर्निया जैसी बिमारियों का खतरा कम हो जाता है ।  
  • शिशु दीर्घायु प्राप्त करता है । 

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